Saturday, December 3, 2022

GyaanPipasu

 बचपन में एक शब्द पढ़ा था ज्ञानपिपासु | पर विलोम में इसका विपरीतार्थक शब्द कहीं नहीं पढ़ा | ये बड़ी चूक है | आप ही बताएं , आपने ज्ञान की प्यास रखने वाले देखे हैं , या ज्ञान की उल्टी करने की चाहत रखने वाले? 

पर गलती शायद भाषाशास्त्रियों की ना हो | ज़माना भी तो बदला है | इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी का युग है | इस युग में ज्ञान सर्वत्र है | ज्ञानी सभी हैं | सुबह उठो, तो वात्सप्प के ४ ग्रुप में इतना ज्ञान मिल जाता है, जो पिछले युग में जीवन भर में ना मिले | ट्विटर पे तो ज्ञानमणि मिलती है , मानो २८० वर्णो में गीता से लेकर  गोर्की तक , सब निचोड़ दिया गया हो | इस ज्ञानगंगा में रोज डुबकी लगा लगा के, हर कोई प्रबुद्ध हो गया है..... मेरा मतलब है खुद को प्रबुद्ध  मानने लगा है | और ये एक समाज के विकसित होने का बड़ा प्रमाण है | जो अभिव्यक्ति की आजादी, विचार की आजादी, विचार व्यक्त करने की आजादी आदि आदि विकसित समाज देता है, वो सब किसलिए ? ताकि हर किसी के पास ये मानने , और ऐसा दावा करने की आजादी रहे की वह भी इंटेलेक्चुअल क्लास  में आता है | पर मसला यही समाप्त नहीं होता | अब ज्ञान है , तो उसे उलटना भी पड़ेगा | ख़ास तौर पे यदि आप ३५  पार कर चुके हो | पश्चिम में एक शब्द चलता है मिड लाइफ क्राइसिस | लोग समझने का प्रयत्न कर रहे हैं की ये क्या है | कुछ लोगों का कहना है की मिड लाइफ में एक ख़ास तरह की घुटन होने लगती है | मैं कहता हूँ ये ज्ञान ही है जो बाहर ना निकल पाने के कारण घुट रहा है | जैसे खाये हुए भोजन को किसी न किसी रास्ते निकलना आवश्यक है, नहीं तो पाचन तंत्र में कहीं न कहीं घुटेगा , ऐसे ही निगला हुआ ज्ञान अगर उगला ना जाए तो दिमाग में क्राइसिस पैदा करेगा ही | पिछली पीढ़ी में ये समस्या ज्यादा थी नहीं , क्युकी एक तो पचाने के लिए ज्ञान इतना था नहीं , और जो था वो आदमी सबसे पहले तो अपने बच्चो पे, और अगर फिर भी बच जाए तो आस पड़ोस के बच्चो पे निकल देता था | अब आजकल के टीनएजर तो हो गए विद्रोही , माँ बाप उलटें तो किसपे उलटें ? मनोविज्ञानिकों को इस दिशा में शोध अवश्य करना चाहिए | 

ख़ैर , मुद्दा था रोज़ आने वाले बाइट साइज़ ज्ञान का | मोटे तौर पे देखा जाए तो जिन २-३  स्त्रोत से सबसे ज़्यादा प्रवाह से ज्ञान आता हैं उन्हें इस प्रकार बांटा जा सकता है :

पहला और आजकल सबसे प्रबल गुट है, नव इतिहासकारों  का | वैसे दुनिया इन्हे दक्षिणपंथी भी  कहती है| इन्हे हाल फिलहाल ही पता चला है की भारतवर्ष इतिहास में कितना महान था | प्राचीन भारत में सब अच्छा था | या यूं कहो की जो अच्छा था वो भारत का था, जो बुरा था वो या तो अंग्रेजो ने थोप दिया या मुगलों ने | फिर भी बात न बने तो कांग्रेस, गाँधी या नेहरू ने | एक शिकायत ये रहती है की  इन्हे इतिहास बचपन में पढ़ाया नहीं गया ढंग से | वो बात और है,  कि कथित बेढंगा भी कभी पढ़ा नहीं | खैर जब बच्चों के ना पढ़ने का दोष उनका नहीं , उनकी किताबो का माना जाए, वो ही प्रगति है | एक मित्र ने लम्बा फॉरवर्ड भेजा की कैसे संस्कृत ज्ञान की कुंजी है | मुझे लगा अब तक तो भाईसाहब संस्कृत के प्रकांड पंडित हो गए  होंगे| भाईसाहब से बात की तो पता चला की छह साल से जर्मनी में हैं , और अंग्रेजी के अलावा जर्मन भी धाराप्रवाह बोल लेते हैं | संस्कृत स्वयं सीखने का समय सा नहीं मिल पाया उन्हें, आखिर अपनी नौकरी की फिक्र करें या ये सब सीखें | जब मैंने पुछा की भाई तुम्हारा पुत्र तो अब स्कूल जाने लगा होगा , जो गलती तुम्हारे माता पिता ने की, तुम न करना, उसे तो सही शिक्षा देना | तो वो बताने लगे की भाई हम तो जर्मनी जैसे देश में फ़ँसे  है,  यहाँ कहाँ किसी को क्या पढ़ा पाएंगे | फिर बताने लगे की जर्मनी की नीतियाँ इतनी बुरी हैं की अगर ले ऑफ हुए तो सीधा भारत (जी हाँ, उनका महान भारत!) आना पड़ सकता है , इसीलिए भारतीय इमिग्रेंट्स दुगुनी मेहनत  से नौकरी करते हैं | 

दूसरा गुट, जिन्हे दुनिया वामपंथी भी कहती है ( और जो परंपरागत रूप से स्वयं को बुद्धिजीवी भी मानता था), ज्ञान के इस भूचाल से विस्मित, व्यथित और विचलित हैं | २०१४ से किसी के अच्छे दिन आये हो या ना आये हो, इनके बुरे दिन जरूर आ गए | दुनिया को शोषक और शोषण की समझ देने वाले आज खुद को शोषित कहने लगे | खैर, इनकी थ्योरी तो हमेशा से जटिल सी रही है तो आजकल कथित  शोषित के प्रति संवेदना भाव का ही प्रचार कर पा रहे हैं | इस संवेदना में ही इनकी वेदना छुपी है | जहां विदेशो में वाम विचारो को 'प्रोग्रेसिव ' माना जाता है , वहीँ इन बेचारो को नेहरू के समय पे रुका माना जाता है  (अगर सीधे सीधे राष्ट्रविरोधी न भी कहे कोई)! 

तीसरा गुट  इस सबको मोह माया मानता है और माया को ही मोह का सही पात्र मानता है | ये नवनिर्मित अर्थशास्त्री हैं जो दस वर्ष के बुल मार्किट में मुनाफा कमाके स्वयं को वारेन बुफेट से कम नहीं समझते | इनके पास शुद्ध देसी घी के भाँती छना  हुआ ज्ञान होता है | ज़्यादा समय ना ये समझने में लगाते ना समझाने में | इनके पास तो धन लक्ष्मी की लूट है , लूट सके तो लूट | 

यूं कहने को चौथा गुट भी कह सकते हो जो आत्मविश्वास की कमी के चलते, किसी गुट से जुड़ नहीं पाते और व्यँग - कटाक्ष के बहाने अपनी उल्टी करते हैं | पर ऐसे दीन - हीन - क्षीण के बारे में क्या ही लिखें !

चित्र सौजन्य से : DALL.E 2 


Saturday, January 9, 2016

जानिये वाहन लीला को

पक्की बात है आपने बचपन में ये गीत सुना होगा - ' ये धरती वीर जवानो की ...' । यदि आप मेरी तरह समीक्षात्मक प्रवति के है तो आपके मन में ये विचार जरूर आया होगा, की ऐसा क्या वीरता का काम हम भारत भूमि पर करते हैं जो स्वयं के लिए ऐसे शौर्य-गीत लिख डाले ! इस वीरता को आप  तब तक नहीं समझ सकते जब तक किसी पश्चिमी देश का भ्रमण ना करें । कभी यूरोप या अमरीका की सड़कों और वाहनो को देखा है ? सब कैसे  पंक्तिबद्ध  चलते हैं ! कायर कहीं के ! दुर्घटना या मृत्यु से इतना ही डर लगता है, तो घर में ही क्यों  नहीं बैठ गए दुबक के ?

देखो भाई, पंक्तिबद्ध  चलना  चींटी की विशेषता है । शेर तो बिना सोचे समझे किसी भी दिशा में निकल पड़ता है । पूरा जंगल उसका है । यही हाल भारत के शेरो, मेरा मतलब वाहन चालकों का है । पूरी सड़क को अपना मानते हैं । और सड़क को ही क्यों, फूटपाथ , उसके परे  नाली, उसके परे  भी कोई भूमि गलती से खाली हो, सब को अपने राज्य के अधिकारक्षेत्र में गिनते हैं । किसी भी दिशा में घुसना, फंसना , फंसाना , निकलना , भेड़ना ये  सब रेगुलर काम हैं । और वीरता सिर्फ वाहनचालकों की नहीं । पदयात्री भी यूं समझें की सर पे कफ़न बाँध के निकलता है । मैं चुनौती देता हूँ किसी अंग्रेज को - एक बार सड़क पार करके दिखादे हिन्दुस्तान में । ये देश , ये भूमि, है ही वीरपुत्रो की ।

 भारत की एक और  विशेषता है, यहाँ लोग लोग  जितने वीर हैं, उतने ही समझदार भी हैं । सरकार को पहले ही पता है  की सड़क पे कोई चलेगा नहीं , इसलिए इसे बनाने के लिए कोई ख़ास खर्च भी नहीं करती । अब सोचो, जितने में सड़क बनेगी, उतने में तो PWD के सब अफसर और कर्मचारी अपना और अपने बाल - बच्चो का भविष्य संवार लेंगे । ज़ेबरा क्रासिंग आदि सब किताबों में ही अच्छा लगता है , एक सच्चा भारतीय वाहनचालक ना तो आणि-तिरछी रेखाओं से रुकता है, ना ही कोई पदयात्री ऐसी रेखाओं को ढूंढने का प्रयास करता है । ऐसे ही वाहन विक्रेता भी गाडी के ब्रेक से ज्यादा ध्यान उसके हॉर्न पे देते हैं । भारतीयों  ने रुकना सीखा ही नहीं जी । हॉर्न दो और आगे बढ़ो । सामने वाला या तो  रास्ता देगा, नहीं तो मरेगा !
indian traffic


मरने-मारने से याद आया । अगर आपके वाहन की किसी और वाहन की टक्कर हो जाये तो आप क्या करेंगे ? सबसे पहले अपने  और सामने वाले के  बाहुबल का मूल्यांकन करेंगे (यदि  आपके या उसके वाहन में और सवारियां भी हैं, तो उन्हें भी इस मूल्यांकन  जोड़िये) । अब अगर आप कमजोर निकले तो अपनी गाडी के सुरक्षा दायरे में रहते हुए, गालियां आदान-प्रदान कीजिये। अगर आप ताकतवर हैं, तो शान से अपनी गाडी के बाहर निकल कर गालियां आदान-प्रदान कीजिये । गलती किसकी थी, किसकी नहीं , ये अप्रासंगिक है।  ऐसे अधिकतर मामले गालियां ले-देकर ही सुलटा लिए जाते हैं । पश्चिम की तरह नहीं, की हर बात में पैसे ही लिए-दिए जाएं । और ना ही हमारी पुलिस इतनी खाली है की इन सब चक्करो में पड़े। पर हाँ, आप स्वयं को कितना ही बड़ा शेर समझें,  सलमान भाई के रास्ते में ना ही पड़े तो अच्छा है ।



Saturday, October 10, 2015

जानिये भारतवर्ष की जागृत जनता को

कई बार दिल में ख्याल आता है की विश्व में भारत की इतनी तरक्की, उन्नति का राज़ क्या है ? क्या इसका कारण हमारे सेवा के लिए आतुर नेतागण हैं (उनके विषय में यहाँ जान सकते हैं) ? हो सकते हैं ।  पर अगर वास्तविक शोध किया जाये तो  मुझे लगता है की पता चलेगा की इसका कारण और कोई नहीं, बल्कि हम सब, यानी भारत की जागृत जनता ही है।  भारत की जनता, पश्चिमी देशो की भोग-विलास में डूबी आलसी जनता जैसी नहीं है जो crime होते देख , मजे से अपने फ़ोन से पुलिस बुला लेते हैं । नहीं जी । हमारे यहाँ पुलिस आदि को ज्यादा तकलीफ नहीं देते । जनता स्वयं ही इतनी सजग है की वहीँ के वहीँ फैसला कर देती है । पर ये है की क्राइम जनता के पसंद का होना चाहिए ।

पसंदीदा क्राइम में सबसे ऊपर समझिए धर्म से संभंधित अपराध । और सही भी है आखिर ईश्वर इंसान से बड़ा है , तो ईश्वर के खिलाफ अपराध, इंसान के खिलाफ अपराध से बड़ा होगा ही । अब हमारे क़ानून लिखने वालो को इतना सा तर्क समझ नहीं आया था , तो इसका दोष उनकी अंग्रेजी शिक्षा को देना पड़ेगा । खैर भला हो जनता का, जिसमे से अधिकतर ने ऐसी कोई शिक्षा - दीक्षा नहीं ली है ( या ली भी है तो भारतीय परम्परानुसार इस हाथ से लेकर दुसरे हाथ से दे दी, स्वयं कुछ भी नहीं रखा )। तो धर्म को लेकर अपने (और सिर्फ अपने) अधिकारों के प्रति जनता जागरूक, सक्रीय एवं प्रतिक्रियाशील भी है । आप खाली पड़ी किसी जमीन पे  कोई मूर्ती स्थापित कर दे या कोई नाममात्र की मस्जिद की दिवार बनाकर नमाज़ी बुला लें| बस ! मजाल सरकार की जो वो जमीन वापिस लेके उसपे तथाकथित आधुनिक विकास समन्धी कोई कुकृत्य कर ले । सड़के, स्कूल , हॉस्पिटल , मॉल आदि सब पश्चिम की नक़ल है जो इंसानी सुख सुविधाओ के लिए बनाये जाते हैं । इन सबको तोडा -फोड़ा जा सकता है । मंदिर - मस्जिद इन सबके परे  हैं ।  पश्चिमी मूर्ख अब  तक मानवाधिकारों की बात करते हैं । हम ऐसे नश्वर प्राणियों के अधिकारों से ऊपर उठ चुके हैं । हमारे यहाँ ईश्वराधिकारो और गौ - अधिकारों  का बोल - बाला ज्यादा रहता है । पश्चिमी चिंतक  कहते हैं, सौ गुनहगार छूट जाए पर  कोई बेगुनाह ना मारा  जाए । हम कहते हैं सौ (या हजार भी) इंसान मर जाय , पर किसी  मंदिर, मस्जिद , गाय , गीता, क़ुरान  आदि को ठेस ना पहुंचे । और ऐसा नहीं है की हमें इंसानो की फिक्र ही नहीं है । आप झूठ को भी खबर फैला दें, की एक हिन्दू - मुस्लिम युगल जोड़ा भाग के विवाह के प्रणय सूत्र में बंध रहा है । फिर देखिये तमाशा, कैसे दोनों और के शुभचिंतक जमा होकर पूरे शहर की स्थिति चिंताजनक बना देते हैं  ।     communal riots जैसे शब्दों का इस्तमाल वो लोग करते हैं जो इन बातों को समझते नहीं । अजी ये तो सक्रियता है जनता की । खैर आपको और उदाहरण देते हैं जनता की सक्रियता के ।

मान लीजिये पश्चिम में कोई सड़क दुर्घटना हो जाए । यहाँ सब लोग दोनों पक्षों को आपस में settle करने के लिए छोड़ देते  है (और ना सेटल कर पाए तो बेचारे पुलिस वालो को आना पड़ता है )। भारत में ऐसा नहीं है , यहाँ राह चलती जनता भी बड़ी सक्रिय है । दुर्घटना हुई नहीं की झुण्ड लग जाता है । अगर एक पक्ष ऐसा है जिसे पीटा जा सकता है (यूं समझिए कुछ प्राणी पिटने योग्य दिखाई देते है ), तो ऐसा भी हो सकता है की झुण्ड में कई लोग उसपर अपना हाथ साफ़ करके  अपना नागरिक दायित्व निभा दें । हाँ सड़क दुर्घटना कोई गंभीर रूप से घायल हो गया, तो बात और है । फिर लोग ज्यादातर अपना पल्ला झाड़कर सरकने में विशवास रखते है, ताकि अगले दिन दुर्घटना में मरने वालो की खबर पढ़कर सरकार या सड़क को दोष दे सकें । आखिर पुलिस - कचहरी आदि के चक्कर में कौन फंसे , वो भी नश्वर प्राणी की जान बचाने के लिए , जिसे बाई  डेफिनिशन एक दिन मरना ही है । यही बात चोर-उच्चक्को-जेब कतरों को लेकर भी है । कोई पिटने टाइप का दिखा, तो हाथ साफ़ करने को सब सक्रिय हैं, कोई वास्तविक गंभीर  क्रिमिनल  जान पड़ता है, तो सरक लो ।


और हमारा बड़प्पन देखिये । इतनी सजग जनता है, और आज तक किसी बात का क्रेडिट खुद नहीं लिया । भारत-पाक विभाजन में २ लाख इंसानो को मार दिया, और क्रेडिट अंग्रेजों की नीति को दिया । उसके बाद तो हर वारदात का क्रेडिट कभी भाजपा को, कभी कांग्रेस को ! तो कभी पाकिस्तान को । अब देखते हैं ऐसे जागृत जनता के साथ मेरा देश विकास की किस सीढ़ी पे पहुंचेगा !

Sunday, December 21, 2014

जानिये प्रतिभाशाली सॉफ्टवेयर इंजीनियर को

कुछ समय पहले मैंने आपको सॉफ्टवेयर इंजीनियर के बारे में बताया था । पर सभी सॉफ्टवेयर इंजीनियर एक जैसे नहीं होते, अपनी प्रतिभा के अनुसार सब अलग अलग तरक्की करते हैं । कुछ लोग इस तरक्की को पैसे या औहदे से नापते हैं, पर मै तो महात्मा गांधी का अनुयायी हूँ । मै मानता हूँ की मनुष्य की असली  पहचान उसके काम से होती है । तो अगर आप सुबह दफ्तर जाते हैं और देर शाम तक गधे की तरह काम करते हैं तो आप वो ही है … … जी हाँ गधे । वैसे इस क्षेत्र में गधो की कोई कमी भी नहीं , यूं समझिए की गधो को विशेष प्रेम सा है इस व्यवसाय से । अगर आप पुराने जमाने की शादी-ब्याह में आते जाते रहे हैं तो आपने देखा होगा की अक्सर कोई दूल्हे का मित्र होता है जो जाता तो ये सोचकर है की बारात में नाचेगा-खायेगा लेकिन वहां जाकर बाकी बारातियो के कपडे इस्त्री करता है । बस समझ जाइये यह व्यक्ति अगर बहुराष्टीय कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है तो वहां गधा ही है । अच्छा कुछ लोग इस खुशफहमी में भी रहते हैं की काम करने से काम सीखते हैं और काम सीखने से तरक्की होती है । भाई ऐसा मानना तो वैसे ही है की आपके घर के निर्माण में ईंटे ढोने वाला मजदूर अगर ज्यादा ईंटे ढोने लगे तो कांट्रेक्टर बन जायेगा । क्या गधा कभी ज्यादा कपडे ढोकर धोबी बना है  ?

प्रतिभा की अगली सीढ़ी में ऐसा इंजीनियर आता है जिसे सब मानते हैं की व्यस्त है मगर कोई नहीं जानता की किस काम में । इस श्रेणी का इंजीनियर कम से कम २ काम में माहिर होता है - एक फैंकना , दूसरा कामचोरी । जब इनसे काम का एस्टीमेट माँगा जाए तो ये दो से तीन गुना देते हैं ताकि काम मुश्किल भी दिखे और कोई और काम भी ना पकड़ाया जाए । आपके पुराने जमाने के शादी-ब्याह की बात करें तो कुछ भाई-बंधू ऐसे होते थे जो काम के वक़्त मुश्किल से ही खोजे जा सकते थे पर खाने के वक़्त हमेशा नजर आते थे । ऐसे ही ये प्राणी morale events, शिपिंग पार्टी आदि में ऐसे जोश से नजर आएगा जैसे प्रोडक्ट रिलीज़ होने  की सबसे ज्यादा ख़ुशी दुनिया में इसी को है । ऐसा प्राणी गलियारों में तेजी से चलता हुआ नजर आता है जैसे हमेशा किसी ख़ास मीटिंग के लिए लेट हो रहा हो । वास्तविकता में दूसरी बिल्डिंग जाकर चाय पीता  है । अब कुछ लोगों में ये प्रतिभा जन्म-जात होती है , कुछ अनुभव से सीख लेते हैं । कुछ नालायक नहीं भी सीखते, उनकी मदद भला कौन कर सकता है ?

इसी श्रेडी में जब एक-दो और खूबियां आ जाएं जैसे की आत्म-विशवास और अंग्रेजी मुहावरों की विस्तृत जानकारी, तो आप अगली श्रेडी में पहुँच जाते हैं । अब आपकी कंपनी भी आपको मात्र इंजीनियर नहीं कहती, विशिष्ट/विशेष/वरिष्ठ आदि आपके नाम के आगे लगाती है । आप मीटिंग्स में धीर-गंभीर मुद्रा में रहते हैं , यही सोच रहे होते हैं की कौनसे  अंग्रेजी के मुहावरे से अपनी बात शुरू करें । आपसे कुछ पुछा जाये तो आप पूरे विशवास से कहते हैं, 'आई विल गेट बैक टू यू' । फिर २-४ लोगों को ईमेल लिखते हैं और उनके जवाब संकलित करके मीटिंग में पूछने वाले को भेज देते हैं । इसी प्रकार एक मीटिंग में सुनी बात दूसरी मीटिंग में अपने आईडिया के तौर पे रख देते हैं । इसी तरह इधर की बात उधर करते हुए आप कंपनी में क्या वैल्यू ऐड कर रहे हैं ये तो स्वयं आप भी नहीं जानते, मगर जानने की जरूरत भी किसे है । अब आप काम नहीं करते, बल्कि दावा करते हैं की काम ड्राइव करते हैं ।  इस श्रेडी के लिए जरूरी प्रतिभा अनुभव से ही आती है।
software engineer

जब आत्म-विशवास और मुहावरो में आप और आगे निकल जाएं तो आप इंजीनियरिंग करियर की आखिरी सीढ़ी पर पहुँच सकते हैं । आपके औहदे से पहले अब इतने विशेषण हैं की आप खुद नहीं जानते । लोग आपको आर्किटेक्ट या चीफ आर्किटेक्ट आदि कहते है लेकिन आपको आर्किटेक्चर आदि में कोई रुचि नहीं । अब आपसे कोई कुछ पूछता है तो आप  'आई विल गेट बैक टू यू' नहीं कहते बल्कि उसी से वापिस इतने सवाल करते हो की आइन्दा कुछ  ना पूछे । मसलन आप कहोगे की तुझे ये करने की जरूरत ही क्या पड़ी , ये तो डिज़ाइन लेवल पे ही कोई गलती होगी । अगला समझायेगा तो कहोगे तुमने डिज़ाइन डॉक्यूमेंट किया है ? इसका यूज केस डायग्राम दो , क्लास डायग्राम दो , ये दो, वो दो, जब तक अगला  आत्म-ग्लानि से माफ़ी ना मांग ले । और फिर भी बाज ना आये , तो २-४ सवाल उसके प्रोजेक्ट को लेके ही दाग दो , मसलन तुम्हारे इस प्रोजेक्ट का मकसद ही क्या है , यूजर को क्या फायदा होगा , कंपनी को क्या फायदा होगा, बिज़नेस जस्टिफिकेशन क्या है । अपने प्रोजेक्ट एवं  नौकरी पे सवालिया निशान दिखते  ही सामने वाला भाग खड़ा होगा । इस प्रकार आप अब ना काम करते हों ना ही उसे  ड्राइव करने का दावा करते हैं । अब आप दावा करते है की आप 'ensure' करते हैं की काम होगा । कैसे - ये तो ना आप जानते हैं ना भगवान ।   

Sunday, November 2, 2014

भारत का काला धन विदेश में !

एक सच्चा देशभक्त होने के नाते मुझे ये जानकार बहुत दुःख हुआ की कई भारतियों का काला धन विदेश में है । इस मामले की तो वास्तव में गहरी  जांच  होनी चाहिए । इस देश में सुविधाओं की, व्यवस्थाओं की, ऐसी क्या कमी रह गयी जो मेरे देशवासियों को काला धन विदेशो में रखना पड़ा ? कोई पढाई करने विदेश जाये, बात समझ आती है, इंडिया में opportunity नहीं होगी । कोई नौकरी करने विदेश जाये, समझ आता है, opportunity नहीं होगी । मगर कोई  काला धन जमा कराने विदेश जाए !! मेरी समझ से तो परे  है भाई । हमारे देश में मंदिर के चढ़ावे से लेके, चुनाव के चंदे तक सब ब्लैक में ही होता है । प्रॉपर्टी खरीदने जाओ, तो पेमेंट ब्लैक में करो । व्यापार करने की पूरी बिज़नेस cycle ब्लैक में करने की व्यवस्था है - जमीन खरीदें ब्लैक में और रजिस्ट्रेशन में छूट पाएं , विदेश से मशीन ब्लैक में मंगाए, कस्टम में छूट पाएं , आधा माल ब्लैक में बेचें, इनकम टैक्स में छूट पाए, और कस्टम, टैक्स आदि के ऑफिसर्स को वोही ब्लैक मनी रिश्वत में दें ताकि वे आगे अपने घर, अपनी प्रॉपर्टी में काला धन इन्वेस्ट करके इस परंपरा को ऐसे ही आगे बढ़ाएं । हजारों दलालों, बिचौलियों की नौकरियां काले धन पे टिकी हैं । इतनी अच्छी व्यवस्था के बावजूद अगर कुछ लोगो को लगा की विदेश में ब्लैक मनी रखने में फायदा है, तो यह तो आत्मावलोकन का विषय है ।

मैंने ये ज़िक्र एक वित्तीय मामलो  के जानकार मित्र से किया तो वह बोला की विदेशी बैंको में प्राइवेसी का ख्याल ज्यादा रखा जाता है । मैंने कहा भाई ये तो सरासर गलतफमही फैलाई जा रही है, भारतिय व्यवस्थाओं को नीचा दिखाने के लिए । विदेशो में प्राइवेसी की कोई क़द्र नहीं है । सब पोलिटिकल पार्टी चिल्ला चिल्ला के बताती हैं की हमें किसने कितना पैसा दिया । सब प्रॉपर्टी का लेन-देन सरकार को बताना पड़ता है । प्राइवेसी की क़द्र तो हिन्दुस्तान में ही है ।  कोई रईस किसी राजनेता को कितना पैसा, कब और कैसे देता है ये सब उन दोनों का प्राइवेट मसला है । हमारे यहाँ सरकार या जनता इन सब के बीच में नहीं पड़ती । पारदर्शिता के हम सख्त खिलाफ हैं, फिर चाहे वो कपडे हो या सरकारी काम काज़ । इसलिए अमरीकी काला बाजारी स्विस बैंक अकाउंट खोलते हैं तो उनकी मजबूरी समझ आती है ।  अगर भारतीय काला बाजारी उनकी होड़ में स्विट्ज़रलैंड में अकाउंट खोल लिए, तो मैं  तो इसे मूर्ख नक़ल ही कहूँगा ।  हमारे राजनेताओं की मेह्नत का ही नतीजा है की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल आदि सँस्थाए हमें ९४वे  स्थान पे डालती हैं । और ये कोई ७००-८०० लोग जाने किस प्रलोभन में आकर विदेशों में धन रखने लगे ।

चलो अच्छा है इस प्रकरण की जांच आयकर विभाग के लोग कर रहे हैं । इन लोगो से बेहतर कौन जान सकता है की भारत में काला धन कहाँ और कैसे छिपाया जाये । उम्मीद है की ये लोग विदेशी खाताधारकों को कुछ सद्बुद्धि और नुस्खे देंगे ताकि आगे से भारत का काला धन यही फले-फूले । मैं  तो कहता हूँ, जांच के बाद इन्हे सरकार को स्कीम/स्कैम  सुझाना चाहिए जिससे भारतीय ही नहीं , पूरे विश्व के भ्रष्ट लोग अपना ब्लैक मनी इन्वेस्ट करने भारत ही आएं ।

होनहार नवयवुकों को यही कहना चाहूँगा की इस सब ड्रामें में ना आए। वेस्ट हमसे ज्ञान - विज्ञान में आगे हो सकता है, भ्रष्टाचार में हम उनसे सदियों आगे हैं  ।  आप लोग जब भी काला धन कमाएं , उसे देश में ही रखे , उससे सुरक्षित कोई और जगह विश्व में हो ही नहीं सकती । भला आजतक हिंदुस्तान में रखा किसी का काला धन जप्त हुआ है ?


Saturday, June 7, 2014

जानिए ब्लॉग लेखक को


 होमोहबिलिस, होमोएरेक्टस, होमोसपीएन  आदि के विकास क्रम के विषय में आपने सुना ही होगा । बस ब्लॉग लेखको को समझना है, तो यूं सोच लीजिए की Homosapien के बाद मनुष्य विकसित होकर ब्लॉग लेखक बन गया । और आप ऐसा माने या ना माने, कम  से कम  ब्लॉग लेखक तो अपने बारे में यही मानते हैं कि साधरण मनुष्य की तुलना में उनका विकास कुछ ज्यादा हो गया है । इसीलिए मुफ्त में ज्ञान बाँट, बाकी मनुष्यजाति को राह दिखाना अपना कर्त्तव्य समझते  है ।

अच्छा, ये लेखक जिस विषय में लिखता है, अक्सर उसने उस क्षेत्र में लिखने के सिवा कोई योगदान नहीं दिया होता । मसलन लेखक खुद किसी कंपनी में मामूली इंजीनियर होगा पर ब्लॉग लिखकर बड़े से बड़े सीईओ को बता देगा की तुम्हारी कंपनी क्यों पिट रही है । वैसे तो यह प्रतिभा साधारण लोगो में भी देखने को मिल जाती है। कोई खुद कितना भी बड़ा अनाडी क्यों ना हो, दूसरो को सलाह देने या आलोचना करने से कब पीछे हटता  है ? बस यूं समझ लीजिए जिन लोगो में ये प्रतिभा जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है वो frustrate होकर ब्लॉग लिखना चालू कर देते हैं । अनुभव से बता रहा हूँ, फ़्रस्ट्रेशन दूर करने का ब्लॉग से बेहतर कोई उपाए नहीं । मिसाल से तौर पे, आपने खुद कभी क्रिकेट का बल्ला ना पकड़ा हो पर आप तेंदुलकर की बैटिंग का विशलेषण कर उसको बता देंगे की उसकी कवर ड्राइव में क्या गलती है । अब जाहिर है आपकी फसबूकि मित्र-मण्डली में (आपके जैसे) और भी मूर्ख होंगे ही, जो आपके विश्लेषण का विश्लेषण कमेंट्स में करना शुरू कर देंगे । हो सकता है २-३ वाह-वाही भी मिल जाए । पिछले दिनों चुनावी मौसम था । हर कोई चुनाव विशेषज्ञ बना बैठा था । ब्लॉग लेखको की चांदी - राजनीति पे ब्लॉग लिख दो, देश और साहित्य दोनों की सेवा कंप्यूटर पे बैठे बैठे सरलता से हो गयी ।  कुछ तो टीवी पे २-४ ओपिनियन पोल देखके उन्हें अपना आकलन कहके दोहराने लगे । और वैसे भी नतीजों के बाद कौन तुमसे पूछने आ रहा है की तुमने क्या छापा  था । और नतीजे आ जाए फिर हारने वाले को २-४ राय दे दो, माने पढ़ने वाले को लगे की अगर चुनाव से पहले भाई इनसे सलाह ले लेता तो हारता ही नहीं । खुद की हैसियत चाहे मुन्सिपलिटी के चुनाव में १० वोट लेने की ना हो!

यूं तो ब्लोगेर्स कई प्रकार के होते हैं पर मोटे तौर पे इन्हे निम्नलिखित तीन-चार  उपजातियो में बांटा जा सकता है :

रायचंद - आपका काम है राय देना, कोई ले या ना ले, ये उसकी प्रॉब्लम । आजकल नया फैशन है, ये काम 'ओपन लेटर' लिखके करने का । प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि अक्सर आपकी राय के पात्र होते है ।

आलोचक या निन्दकारी  - ऐसा नहीं है की निंदा रस  की उपासना केवल ब्लोग्गेर्स तक सीमित हो। घरेलू महिलाओं से लेकर ऑफिस के कैफेटेरिया तक सभी प्राणी इस रस  का आनंद लेते पाये जा सकते हैं । यही काम ब्लॉग में करके आप पाठको को निंदा-सागर में डुबकी लगाने का आनंद देते हैं ।

फ़र्ज़ी शोधकारी  - अक्सर ये लोग जीवन में पीएचडी आदि करने की हसरत रखते थे, पर समय या अक्ल की कमी के चलते ये हसरते दिवास्वप्न रह गई । इनका मोडस-ओपेरंडी ये है की Wikipedia पे २-४ आर्टिकल पढ़के ब्लॉग रूप में छापके ऐसा दिखाओ की दुनिया में सारा मौलिक शोध आपका ही है ।

ट्रैवलिंग ब्लॉग लेखक - ये ब्लॉग कृतक आजकल जन्मी फोटोग्राफर जाती का अपभ्रंश रूप है । जिन्हे अपने चित्र लगाने भर से चैन नहीं मिलता वो साथ में ये भी बखान कर डालते हैं की कहाँ जाके क्या खाया , क्या उल्टा , क्या धोया क्या सुखाया । इन्हे डींग हांकने का विशेष शौक होता है, कहीं दो मील चलके गए तो बखान ऐसे लिखेंगे जैसे क़िला फ़तेह किया हो । पृष्टभूमि सदा एक ही रहती है - वहां पहुचने में कितनी तकलीफ हुई 'बट  हाउ एवरीथिंग वास वर्थ इट'! खैर इनके पाठको को इनके निजी क्रिया-कलापो में कोई रुचि हो न हो, इनके चित्र देखके जल भी लेते हैं और आनंद भी उठा लेते हैं ।


खैर मुझे आशा की आने वाले समय में ब्लॉग लेखको की जाति और फले - फूलेगी । और हाँ मुझे इन उपजातियों में डालने की चेष्टा न करें !


Thursday, August 8, 2013

उत्तर प्रदेश में दुर्गा शक्ति

ये आजकल media में किसी दुर्गा शक्ति का मामला बड़ा उछल रहा है । सुनने में आया कोई ईमानदार नौकरशाह थी, सरकार को बर्दाश्त नहीं हुई, suspend  हो गयी । मुझे बड़ा confusion  हुआ खबर सुनके । पहले तो ये बताओ कि जब ईमानदार थी तो मैडम ने आईएस की परीक्षा क्यों दी ? और चलो परीक्षा भी दे दी, मै कहता हूँ सिलेक्शन भी हो गया, पर फिर उत्तर प्रदेश cadre में आने को किसने कहा ? ये तो ऐसा हुआ की तैरना हम चाहते नहीं, और कूदेंगे महासागर में !

अच्छा आज एक और खबर आई। हिमाचल में भी किसी युनिस खान नामक SDM ने रेत माफिया से पंगा ले लिया । वो भी दुर्गा मैडम के ही batch के हैं । मै तो कहता हूँ  इस बात की गहराई से जांच होनी चाहिए । ऐसा मालूम होता है की ये २०१० के बैच को लाल बहादुर अकादमी में कोई जरूरी कोर्स कराना इस बार भूल गए । वर्ना आईएस और लोकल MLA  का तो ऐसा सम्बन्ध होता है जैसे दिया और बाती !! इस बैच के लोगो को भारत में governance के बारे में कोई ज्ञान ही ना हो, ऐसा लग रहा है । एक काबिल अफसर का काम है, जनता द्वारा चुने हुए नेताओं को ज्यादा से ज्यादा फायेदा पहुचाना । और चलो इन लोगो ने flying squads वगरह भी बना लिए । इन सबका मकसद यहाँ तक होता की डरा धमका के थोड़ी फ़ालतू रिश्वत वसूल लें कोई दिक्कत नहीं थी । मगर ये मैडम तो सरकारी राजस्व को फायेदा पहुचने के इरादे में थी । अजी सरकारी राजस्व तो आपको ससपेंड करने से भी बचा लेंगे । और एक नेता ने तो कहा भी, की केंद्र सरकार सभी आईएस को वापिस बुला ले, हम सरकार फिर भी चला लेंगे । सही बात है । उत्तर प्रदेश को तो यूं भी दशकों से माफिया ही चला रहा है, तो ये आईएस वगरह की तनख्वाह पे पैसे क्यूँ बर्बाद करें । इसे कहते हैं "saving taxpayer's hard earned money "!!

अच्छा श्री आजम खां का बयान भी गौरतलब है । आपने फरमाया कि  रेत, खनिज आदि तो कुदरत की देन है, राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट । इसे कहते हैं free market economy । में तो कहूँगा वास्तविक रूप से स्वंत्रता तो सिर्फ उत्तर प्रदेश को ही मिली है (हालाँकि १५ अगस्त पूरा देश मनाता है )।  उत्तर प्रदेश में व्यक्ति जो करना चाहे उसके लिए स्वतंत्र है । किसी और के बनाये कायदे-कानून की उसपे कोई रोक थाम नहीं है ।
एक सेवाभिलाशी सांसद  ने दुर्गा जी के सस्पेंशन को लोकतंत्र की जीत भी बताया । वैसे भारतीय लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा तो है ही, सबसे रोचक भी है । जरा सोचिये यहाँ एक SDM ने नॉएडा में कुछ किया, उसका परीणाम ये की संसद में फ़ूड सिक्यूरिटी बिल लटक जायेगा । मारो कहीं, लगे कहीं ।

अच्छा इस सब से एक काम ये भी हो रहा है की मीडिया वाले शोर मच रहे हैं कि आईएस अधिकारीयों को ज्यादा स्वायत्ता दे दो । इनका सोचना है की ऐसा करने से ज्यादा पारदर्शिता आएगी । मेरे तो समझ नहीं आता कैसे ? कोई सभी आईएस दुर्गा मैडम जैसे नासमझ तो हैं नहीं । और भाई, पारदर्शिता लाकर भी क्या करना, हमने तो गांधी जी से सीखा है की बुरा ना ही देखो तो अच्छा !!


अच्छा कांग्रेस का बयान भी अच्छा लगा इस सब में । जब पुछा गया की सोनिया जी इस मामले में ही क्यूँ बोल रही हैं, खेमका के मामले में क्यूँ नहीं, वो भी तो ईमानदार थे । तो कांग्रेस कहती है - ना ना हम तो सिर्फ ट्रान्सफर करते हैं ईमानदार अफसरों का, ससपेंड नहीं । और मुझे तो मुख्य मंत्री जी का भी बयान बड़ा जँचा - आईएस को ससपेंड करना वैसे ही जरूरी है, जैसे मास्टर का स्टूडेंट को पीटना । …. मगर बच्चों को school में पीटने को तो सर्वोच्च न्यायालय ने गैर - कानूनी करार दिया था.…. अब सर्वोच्च न्यायालय का क्या, उन्होंने तो सरकारी जमीन में धार्मिक स्थल बनाने को भी गैर कानूनी कहा था.……….
Durga shakti supporters