Saturday, December 3, 2022

GyaanPipasu

 बचपन में एक शब्द पढ़ा था ज्ञानपिपासु | पर विलोम में इसका विपरीतार्थक शब्द कहीं नहीं पढ़ा | ये बड़ी चूक है | आप ही बताएं , आपने ज्ञान की प्यास रखने वाले देखे हैं , या ज्ञान की उल्टी करने की चाहत रखने वाले? 

पर गलती शायद भाषाशास्त्रियों की ना हो | ज़माना भी तो बदला है | इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी का युग है | इस युग में ज्ञान सर्वत्र है | ज्ञानी सभी हैं | सुबह उठो, तो वात्सप्प के ४ ग्रुप में इतना ज्ञान मिल जाता है, जो पिछले युग में जीवन भर में ना मिले | ट्विटर पे तो ज्ञानमणि मिलती है , मानो २८० वर्णो में गीता से लेकर  गोर्की तक , सब निचोड़ दिया गया हो | इस ज्ञानगंगा में रोज डुबकी लगा लगा के, हर कोई प्रबुद्ध हो गया है..... मेरा मतलब है खुद को प्रबुद्ध  मानने लगा है | और ये एक समाज के विकसित होने का बड़ा प्रमाण है | जो अभिव्यक्ति की आजादी, विचार की आजादी, विचार व्यक्त करने की आजादी आदि आदि विकसित समाज देता है, वो सब किसलिए ? ताकि हर किसी के पास ये मानने , और ऐसा दावा करने की आजादी रहे की वह भी इंटेलेक्चुअल क्लास  में आता है | पर मसला यही समाप्त नहीं होता | अब ज्ञान है , तो उसे उलटना भी पड़ेगा | ख़ास तौर पे यदि आप ३५  पार कर चुके हो | पश्चिम में एक शब्द चलता है मिड लाइफ क्राइसिस | लोग समझने का प्रयत्न कर रहे हैं की ये क्या है | कुछ लोगों का कहना है की मिड लाइफ में एक ख़ास तरह की घुटन होने लगती है | मैं कहता हूँ ये ज्ञान ही है जो बाहर ना निकल पाने के कारण घुट रहा है | जैसे खाये हुए भोजन को किसी न किसी रास्ते निकलना आवश्यक है, नहीं तो पाचन तंत्र में कहीं न कहीं घुटेगा , ऐसे ही निगला हुआ ज्ञान अगर उगला ना जाए तो दिमाग में क्राइसिस पैदा करेगा ही | पिछली पीढ़ी में ये समस्या ज्यादा थी नहीं , क्युकी एक तो पचाने के लिए ज्ञान इतना था नहीं , और जो था वो आदमी सबसे पहले तो अपने बच्चो पे, और अगर फिर भी बच जाए तो आस पड़ोस के बच्चो पे निकल देता था | अब आजकल के टीनएजर तो हो गए विद्रोही , माँ बाप उलटें तो किसपे उलटें ? मनोविज्ञानिकों को इस दिशा में शोध अवश्य करना चाहिए | 

ख़ैर , मुद्दा था रोज़ आने वाले बाइट साइज़ ज्ञान का | मोटे तौर पे देखा जाए तो जिन २-३  स्त्रोत से सबसे ज़्यादा प्रवाह से ज्ञान आता हैं उन्हें इस प्रकार बांटा जा सकता है :

पहला और आजकल सबसे प्रबल गुट है, नव इतिहासकारों  का | वैसे दुनिया इन्हे दक्षिणपंथी भी  कहती है| इन्हे हाल फिलहाल ही पता चला है की भारतवर्ष इतिहास में कितना महान था | प्राचीन भारत में सब अच्छा था | या यूं कहो की जो अच्छा था वो भारत का था, जो बुरा था वो या तो अंग्रेजो ने थोप दिया या मुगलों ने | फिर भी बात न बने तो कांग्रेस, गाँधी या नेहरू ने | एक शिकायत ये रहती है की  इन्हे इतिहास बचपन में पढ़ाया नहीं गया ढंग से | वो बात और है,  कि कथित बेढंगा भी कभी पढ़ा नहीं | खैर जब बच्चों के ना पढ़ने का दोष उनका नहीं , उनकी किताबो का माना जाए, वो ही प्रगति है | एक मित्र ने लम्बा फॉरवर्ड भेजा की कैसे संस्कृत ज्ञान की कुंजी है | मुझे लगा अब तक तो भाईसाहब संस्कृत के प्रकांड पंडित हो गए  होंगे| भाईसाहब से बात की तो पता चला की छह साल से जर्मनी में हैं , और अंग्रेजी के अलावा जर्मन भी धाराप्रवाह बोल लेते हैं | संस्कृत स्वयं सीखने का समय सा नहीं मिल पाया उन्हें, आखिर अपनी नौकरी की फिक्र करें या ये सब सीखें | जब मैंने पुछा की भाई तुम्हारा पुत्र तो अब स्कूल जाने लगा होगा , जो गलती तुम्हारे माता पिता ने की, तुम न करना, उसे तो सही शिक्षा देना | तो वो बताने लगे की भाई हम तो जर्मनी जैसे देश में फ़ँसे  है,  यहाँ कहाँ किसी को क्या पढ़ा पाएंगे | फिर बताने लगे की जर्मनी की नीतियाँ इतनी बुरी हैं की अगर ले ऑफ हुए तो सीधा भारत (जी हाँ, उनका महान भारत!) आना पड़ सकता है , इसीलिए भारतीय इमिग्रेंट्स दुगुनी मेहनत  से नौकरी करते हैं | 

दूसरा गुट, जिन्हे दुनिया वामपंथी भी कहती है ( और जो परंपरागत रूप से स्वयं को बुद्धिजीवी भी मानता था), ज्ञान के इस भूचाल से विस्मित, व्यथित और विचलित हैं | २०१४ से किसी के अच्छे दिन आये हो या ना आये हो, इनके बुरे दिन जरूर आ गए | दुनिया को शोषक और शोषण की समझ देने वाले आज खुद को शोषित कहने लगे | खैर, इनकी थ्योरी तो हमेशा से जटिल सी रही है तो आजकल कथित  शोषित के प्रति संवेदना भाव का ही प्रचार कर पा रहे हैं | इस संवेदना में ही इनकी वेदना छुपी है | जहां विदेशो में वाम विचारो को 'प्रोग्रेसिव ' माना जाता है , वहीँ इन बेचारो को नेहरू के समय पे रुका माना जाता है  (अगर सीधे सीधे राष्ट्रविरोधी न भी कहे कोई)! 

तीसरा गुट  इस सबको मोह माया मानता है और माया को ही मोह का सही पात्र मानता है | ये नवनिर्मित अर्थशास्त्री हैं जो दस वर्ष के बुल मार्किट में मुनाफा कमाके स्वयं को वारेन बुफेट से कम नहीं समझते | इनके पास शुद्ध देसी घी के भाँती छना  हुआ ज्ञान होता है | ज़्यादा समय ना ये समझने में लगाते ना समझाने में | इनके पास तो धन लक्ष्मी की लूट है , लूट सके तो लूट | 

यूं कहने को चौथा गुट भी कह सकते हो जो आत्मविश्वास की कमी के चलते, किसी गुट से जुड़ नहीं पाते और व्यँग - कटाक्ष के बहाने अपनी उल्टी करते हैं | पर ऐसे दीन - हीन - क्षीण के बारे में क्या ही लिखें !

चित्र सौजन्य से : DALL.E 2 


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